कपडो कि दुकान से दूर हाथों में,
कुछ सिक्के गिनते मैंने उसे देखा।
एक गरीब बच्चे को मेंने,
फटे कपडो मे घुमते देखा।
थी चाह उसे भी नए कपडे पहनने की,
पर उन्ही पूराने कपडो को मैने उसे साफ करते देखा।
हम करते है सदा अपने ग़मो कि नुमाईश,
उसे चूप-चाप ग़मो को पीते देखा।
जब मैने कहा, “बच्चे, क्या चहिये तुम्हे”?
तो उसे चुप-चाप मुस्कुरा कर “ना” में सिर हिलाते देखा।
थी वह उम्र बहुत छोटी अभी,
पर उसके अंदर मैने ज़मीर को पलते देखा।
त्योहारो को अपने चेहरे पे चमकती है खुशी,
मैने उसके हँसते, मगर बेबस चेहरें को देखा।
हम तो जीन्दा है अभी शान से यहा,
पर उसे जीते जी शान से मरते देखा।
लोग कहते है, त्योहार होते हैं जिंदगी मे खुशियों के लिए,
तो क्यो मैंने उसे मन ही मन मे घूटते और तरस्ते देखा?
कवी -मृणाल(mrunalspoem)